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बेज़ुबान ख़याल

"बेज़ुबान ख़याल" "न कवयित्री हूँ, न कविताएँ लिखती हूँ, न लेखिका हूँ, न लेख लिखती हूँ, बस मन में उठते कुछ सवाल और उमड़ते कुछ ख़याल, ओस की चादर ओढ़ कर कभी कुछ गुनगुनाते हैं, कभी गुदगुदाते हैं, तो कभी बेचैन कर सताते हैं, जिस पल ठंडी पड़ी कलम को छु जाते हैं, बेज़ुबान ख़याल खुद बा खुद शब्द बन जाते हैं" - शिप्रा अनादि देव कौशिक  

"मुझे बस लिखते जाना है"

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"मुझे बस लिखते जाना है…." चाहे कण्ठ हो रूखा, या हाथ मेरा रुके, भले ही सूख जाए स्याही, मगर कलम मेरी कभी न रुके, मुझे बस लिखते जाना है। हकीकत वो है जो हर दिल जानता है, फिर क्यों अखबारों में बिकता आज फसाना है? क्या इसलिए जब सच लिखा जाता था, वो किस्सा अब हो चला है दौर पुराना, अब मौन है जब स्याही, क्या इसे ही कहते हैं नया ज़माना? पर मैं न रुकुंगी,  सूख भी ग‌ई अगर स्याही, देशभक्ति के रंग से उसे भर दूंगी। रक्त भी हिन्दुस्तान का है, दौड़ रहा नमक भी भारत मां का है, इसीलिए मुझे लिखते ही जाना है..... क्यों मौन है साधा हुआ, या झूठ की चादर में है खुद को छुपा लिया, तिरंगे में लिपटे हर इंसान ने अपने दिल को है तिरंगे की पोशाक पहनाई, फिर क्यों बेजुबान हो गयी हैं  आज इतनी कलमें, और गुनेहगार बन गयी है स्याही । क्या डर  गए हो या आज कोई नया बहाना है, क्यों लिखते हो फ़साना जब कर्म तुम्हारा सच बतलाना है? पर मेरी कलम न डरेगी, न रुकेगी, मुझे बस लिखते जाना है.... दौर भी बदलेगा, लोग भी बदलेंगे, जो बोल दिया, जो लिख दिया, कुछ समझ गए, कुछ अभी समझेंग