"मुझे बस लिखते जाना है"
"मुझे बस लिखते जाना है…."
चाहे कण्ठ हो रूखा, या हाथ मेरा रुके,
भले ही सूख जाए स्याही, मगर कलम मेरी कभी न रुके,
मुझे बस लिखते जाना है।
हकीकत वो है जो हर दिल जानता है,
फिर क्यों अखबारों में बिकता आज फसाना है?
क्या इसलिए जब सच लिखा जाता था,
वो किस्सा अब हो चला है दौर पुराना,
अब मौन है जब स्याही,
क्या इसे ही कहते हैं नया ज़माना?
पर मैं न रुकुंगी,
सूख भी गई अगर स्याही, देशभक्ति के रंग से उसे भर दूंगी।
रक्त भी हिन्दुस्तान का है,
दौड़ रहा नमक भी भारत मां का है,
इसीलिए मुझे लिखते ही जाना है.....
क्यों मौन है साधा हुआ,
या झूठ की चादर में है खुद को छुपा लिया,
तिरंगे में लिपटे हर इंसान ने अपने दिल को है तिरंगे की पोशाक पहनाई,
फिर क्यों बेजुबान हो गयी हैं आज इतनी कलमें,
और गुनेहगार बन गयी है स्याही।
क्या डर गए हो या आज कोई नया बहाना है,
क्यों लिखते हो फ़साना जब कर्म तुम्हारा सच बतलाना है?
पर मेरी कलम न डरेगी, न रुकेगी,
मुझे बस लिखते जाना है....
दौर भी बदलेगा, लोग भी बदलेंगे,
जो बोल दिया, जो लिख दिया,
कुछ समझ गए, कुछ अभी समझेंगे,
कुछ सम्भल गए, कुछ अभी सम्भलेंगे|
कुछ सम्भल गए, कुछ अभी सम्भलेंगे|
दिल पर जिसके छप गया सच्चा हिन्दुस्तानी,
नामुमकिन उसकी हस्ती को मिटाना है।
मैं न रुकूंगी, मैं न थकूँगी,
मुझे बस लिखते ही जाना है.....
यहाँ हर पेड़ अलग है, फूल अलग हैं, पात अलग हैं,
हर हिन्दुस्तांनी का धर्म अलग है, जात अलग है,
बोली अलग है, मुँह से निकली हर बात अलग है।
दिल में दफ़न जज़्बात अलग हैं,
आँखों में पल रहे ख्वाब अलग हैं,
पर हर दिल पर हिन्दुस्तान लिखा है,
न राज्य से, न राजनीति से,
न रंग से, न रंज से,
न किसी रंगमंच से,
न पैसे से, न किसी फैसले से,
न सत्ते से, न भत्ते से,
न किसी रसम से, न रिवाज़ से,
न किसी लिबास से और न ही किसी त्यौहार से,
बल्कि लिखा है ये इसी धरती रज में मिली,
इसी आकाश से छूटी फुहार से।
मेरी कलम में भी हिन्दुस्तान बसता है,
इसीलिए मैं न रुकूंगी, न मैं थकूँगी,
मुझे बस लिखते ही जाना है.......
जय हिन्द
- शिप्रा अनादि देव कौशिक
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